बुधवार, 10 दिसंबर 2008
जब छत पर बैठे देखा ढलता चांद
चॉद जो यूं ढलता है फिर निकलता है समां है या सिर्फ अंधेरा, जिंदगी कुछ यूं ही है ये आशा का सवेरा है या फिर गम अंधेरा...कौन है जो ये पहेली सुलझा सके...शायद कोई नही...शाम के पहलू में ये ढलता चॉद समझ नही आया ..शायद यही ज़िंदगी की सच्चाई है...काश ये शाम का समां कभी ना ढलता ...चॉद यूं ही अपना चांदनी बिखेरता...दिल कितना पत्थर है कुछ नही समझता ...समझता है तो नादान ख्वाहिंशो को, जो उसकी अपनी ख्वाहिश है...रूख दिल का यूं बेपरवाह हो जाएगा पता नही था...काश आसमान से गिरके दिल के चाहतो पे ना अटकते तो शायद यूं ना टूटते...चांद तारे मत तोड़ना बस अपना साथ मेरे हाथ में दे देना...गम या खुशी का तब एहसास होता है जब कोई एहसास दिला सके...जब चां भी चांदनी बिखेरने से कतराता है तो भला इन्सान अपना दिल क्यूं किसी के लिए कुर्बान करे..
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